(यह लेख उन लोगों के लिये है जो कि सूचना के अधिकार तथा ब्युरोक्रेटिक एकाउंटेबिलिटी के लिये गंभीर हैं। यदि अाप इस श्रेणी में अाते हैं तो इसे पढ़े अन्यथा इसे कतई ही ना पढ़ें अौर मुझे क्षमा करने की कृपा करें।)
मेरा निवेदन है कि विभिन्न व्यक्तिगत अौर संस्थागत अाग्रहों को परे रख कर इस लेख को समझने का तथा परिष्कृत करने का प्रयास किया जाये, ताकि अभी भी जो सम्भावनायें शेष हैं उनको सहेज कर इस कानून को मजबूत किया जाये। यह लेख उत्तरी भारत के बड़ी जनसंख्या वाले हिन्दी भाषी प्रदेशों के ऊपर अाधारित है। RTI का कानून एक अवसर था जिससे कि भारत की अाम जनता के हाथ में कुछ ठोस ताकत पहुंच सकती थी फिर धीरे-धीरे कालान्तर में एक बड़ा वास्तविक जनान्दोलन सरकारों की अाम जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने की दिशा में खड़ा किया जा सकता था। कारण जो भी रहा हो किंतु कांग्रेस की सरकार ने सूचना का अधिकार कानून लागू किया। यदि कानून को ध्यान से देखा जाये तो यही लगता है कि कानून को दिखावटी रूप में नहीं बनाया गया। यह कानून भारतीय संविधान के उन चंद कानूनों मे से एक था जिनसे भारत में लोकतंत्र के मूल्यों की संभावना बनती दिखती थी। भारत में राजनीति दलों अौर अफसरशाही ने कभी खुद को अाम जानता के प्रति जिम्मेदार नही माना उल्टे जनता को अपना गुलाम मानते अा रहे हैं। इसलिये कांग्रेस पार्टी इस कानून के लिये धन्यवाद की पात्र है। यह कानून अाम अादमी के लिये उसकी अपनी जरुरतों के लिये बना था। मुझे अाज तक समझ नही अाया कि इस कानून को भारत की वास्तविक अाजादी के रुप में क्यों देखा जाने लगा? यह एक ऐसा कानून है जो कि अाम अादमी की प्रताड़ना कुछ कम कर सकने में मदद कर सकता है, इससे अधिक अपेक्षा इस कानून से नहीं की जा सकती है। अाम अादमी को सरकारी कार्यालायों में जाकर धक्के खाने की, अपमान झेलने की तथा बार-बार चक्कर लगाने जैसी प्रताड़नाअों से कुछ अाराम इस कानून से मिल सकता है। यह कानून कोई बहुत बड़ा या बहुत मजबूत कानून नही है जो कि व्यवस्था को ही बदल डालने की हिम्मत रखता हो। व्यवस्था तो तब बदलती है जब अाम समाज उठ खड़ा होता है बदलाव के लिये वह भी स्वतः स्फूर्ति के साथ।
मेरा मानना है कि सिर्फ कानून बनाने से सामाजिक परिवर्तन नहीं हुअा करते क्योकि जो सत्ता कानून बनाती है वही सत्ता अपने हितों के लिये कानून को बदल भी सकती है। चूंकि भारत के सामाजिक क्षेत्र में वास्तविक जनशक्ति रखने वाले लोग नहीं हैं इसलिये दिन प्रतिदिन अफसरशाही व सत्ता तंत्र अौर अधिक गैर जवाबदेह तथा बेलगाम होते जा रहे हैं। मैं उन अगंभीर अौर सतही लोगों की बात नहीं कर रहा जो कि फंड/ ग्रांट्स के दम पर धरना प्रदर्शन करने के लिये कुछ लोगों की भीड़ जमा करके मीडिया में बने रहने या सामाजिक ग्लैमर का भोग करने के लिये किसी ना किसी मुद्दे की खोज में लगे रहते हैं अौर हल्ला गुल्ला करते रहते हैं अौर खुद को जनशक्ति के रूप में प्रदर्शित करने के भ्रम को बनाये रखने में लगे रहते हैं। तो यदि इन लोगों के द्वारा बनाये भ्रम से अलग होकर देखा जाये तो एक अति भयावह बात साफ मालूम देती है कि भारत में वास्तविक जमीनी अौर दूरदर्शी स्वतः स्फूर्त जनान्दोलनों का अभाव है जो कि पूरी व्यवस्था को बदलने के लिये उत्पन्न हुये हों। अाजादी के बाद से साल दर साल भारतीय अाम अादमी अौर अाम समाज अौर कमजोर ही हुअा है अौर भारतीय व्यवस्था तंत्र अौर अधिक अमानवीय, असामाजिक तथा गैर जवाबदेह ही होता जा रहा है। ऐसी कमजोर हालत में RTI जैसे कानून को जिस गंभीरता अौर दूरदर्शिता से संभालते अौर मजबूत करते जाने की अहम जरूरत थी, जिससे कि समय के साथ साथ धीरे धीरे इसी कानून से अौर भी बड़े तरीके विकसित करके सत्ता तंत्रों को अाम समाज के प्रति जिम्मेदार बनने को विवश करके लोकतंत्र अौर स्वतंत्रता के मूल्यों को संविधान के पन्नों में छापते रहने की बजाय यथार्थ जमीनी धरातल में जीवंत उतार कर ले अाया जाता। यदि अफसरशाही सूचना का अधिकार कानून को हतोत्साहित करती है तो यह कोई बड़ी बात नही क्योकि अाजादी के बाद से ही अफसरशाही ने जरुरत से अधिक अधिकार पाये अौर खुद को अाम जनता का मालिक माना अौर जनता को गुलाम, तो यदि अाज अाम जनता उनसे कुछ पूछे तो यह बात अफसरशाही को कैसे बर्दाश्त होगी। यदि नेता व अफसर लोग इस कानून को नुकसान पहुंचाते हैं या हतोत्साहित करते हैं तो यह कोई अचरज वाली बात नहीं क्योकि अाम जनता को मजबूत ना होने देना अौर खुद को अाम जनता का मालिक बनाये रखने के लिये हथकंडे अपनाना तो इन लोगों के मूल चरित्र में है। हमको तो यह देखना है कि हमारे बीच से कोई क्षति तो नही हो रही है इस कानून को। चार वर्ष का समय पर्याप्त समयावधि होती है, इसलिये यह मूल्यांकन करने की जरुरत है कि पिछले चार सालों में इस कानून के नाम पर क्या हुअा !! RTI जो कि एक सहज प्रक्रिया होनी चाहिये थी, धीरे-धीरे कठिन प्रक्रिया होती जा रही है। क्यों होती जा रही हैं, अाईये कुछ इन कारणों को भी समझने का प्रयास करें।
भारत में कुछ ऐसे बड़े सामाजिक लोग हैं जिन्होनें RTI के नाम पर लाखों-करोड़ों रुपये प्रति वर्ष पाये हैं अौर अभी भी पा रहे हैं साथ ही मीडिया के ग्लैमर का मजा लगातार लेते अा रहे हैं, विदेश घूम फिर रहे हैं। कुल जमा योग यह कि इन लोगों ने हर प्रकार का सहयोग प्राप्त किया। तो इन लोगों से इतनी सामाजिक इमानदारी की अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि वे लोग अपने भीतर झांक के देखें कि वास्तव में उन्होनें RTI को मजबूत किया है या कमजोर। वास्तव में सूचना के अधिकार कानून को पूरा खिलने के पहले ही इन प्रतिष्ठित सामाजिक लोगों ने बेजान बना दिया है, ये वही लोग हैं जिन्होने अपने अापको भारत के सामाजिक क्षेत्र में मसीहाअों के रूप में स्थापित कर रखा है। ये लोग कितना भी हल्ला मचायें अौर सरकार को गलियायें किन्तु इस सच को झुठलाया नहीं जाया सकता कि कांग्रेस ने RTI का कानून लागू करने की इच्छा शक्ति दिखायी थी। समय के साथ RTI कानून की दुर्गति से यह अंदाजा तो लग ही गया है कि करोड़ों रुपये हर साल का फंड पाने वाले अौर ऐनकेन प्रकारेण मीडिया की सुर्खियों में बने रहने वाले इन सामाजिक मसीहाअों की वास्तविक समझ कितनी है। मैं अमूमन इन लोगों को भारतीय सामाजिक क्षेत्र का कारपोरेट कहता हूं।
RTI के विकास के नाम पर तो इनमें से कुछ ने तो अपनी संस्थाअों को बाकायदा प्रोफेशनल कंपनियों की तरह चला रखा है, करोड़ों रुपये का प्रपोजल बनाते हैं RTI में काम करने के लिये, वेतनभोगी कर्मचारी रखते हैं जो कि RTI लगाते हैं अौर तंख्वाह पाते हैं, इन वेतनभोगी लोगों के बाकायदा स्थानांतरण होते हैं। इन लोगों से अाप पूछें RTI के बारे में तो इतनी रिपोर्टें अापको बता देंगें कि अापको ऐसा प्रतीत होने लगता है कि जहां भी ये लोग काम कर रहे हैं वहां पर सब कुछ RTI मय हो गया है अौर स्वराज की स्थापना हो गयी है। यह लोग अापको बतायेंगें कि कैसे इन लोगों ने RTI लगाकर अौर दबाव बनाकर गरीबी की रेखा के नीचे वाले कार्ड बनवा दिये, कैसे पासपोर्ट बनवा दिया, कैसे भ्रष्टाचार बिलकुल खतम करवा दिया, इसी तरह के अौर भी बातें अापको बतायेगें।
इन लोगों को 3000-15000 रुपया महीना या अौर भी अधिक तन्ख्वाह मिलती है RTI के काम के लिये, पेपर, लिफाफा तथा डाक टिकट का खर्चा बिल दिखाने पर अलग से मिलता है। भारत की बहुसंख्य जनता के अधिकतर काम 100 से 500 रुपये की घूस रूपी सुविधाशुल्क देने से बन जातें हैं, एक पासपोर्ट 1000 से 3000 रुपये की घूस से बन जाता है। यदि विभिन्न प्रकार के कामों की अौसत घूस 300 रुपये भी मान ली जाये, तो प्रश्न यह खड़ा होता है कि क्या 3000 महीना पाने वाला हर महीना 10 काम करवा देता है RTI लगा कर या 15000 पाने वाला हर महीना 50 काम करवा देता है? यदि मान लिया जाये कि करवा भी देते हैं तब भी बात वही हुयी कि काम करवाने में सुविधा-खर्चा उतना ही अाया अौर सुविधा खर्च अपरोक्ष रुप से देना ही पड़ा, क्योकि बाकी खर्चे जैसे पेपर, पेन, लिफाफा, डाकटिकट इत्यादि किस्म के मामूली खर्चे या तो अावेदक झेलता है या बिल लगाने पर अलग से पेमेँट होता है RTI के काम के लिये नियुक्त वेतनभोगी व्यक्ति को। प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि हर महीने इतने गरीब अावेदक क्या सच में ही लाइन लगा कर इन लोगों के पास अाते हैं? RTI के कानून के अाधार पर एक महीना से दो महीना तक विभिन्न चरणों में लगता है उत्तर पाने में, समस्या का हल कब होगा या नहीं होगा या कैसे होगा यह बात निश्चित नहीं, जबकि घूस देने से तो काम होने की गारंटी रहती है। प्रश्न यह भी खड़ा होता है क्या RTI का कानून NGOs में रोजगार पैदा करने के लिये बनाया गया था या अाम अादमी को मजबूत करने के लिये बनाया गया था? लाखों-करोड़ों रुपये का फंड मिलता रहे इसलिये समय समय पर कोई भी छोटा या बड़ा मुद्दा बना कर धरना प्रदर्शन करना या सेमिनार जैसा कुछ कर देना या प्रेस कान्फेरेन्स कर देना जैसा कुछ करके दिखाते रहते हैं जिससे कि यह लगता रहे कि RTI कानून को मजबूत करने के लिये संघर्ष जारी है, अब चूंकि वेतनभोगी लोगों को वेतन इन्ही बड़े सामाजिक लोगों के ही जुगाड़ों से मिलता है इसलिये कोई अाये या ना अाये किंतु वेतनभोगी लोग अौर भविष्य में वेतनभोगी बनने की लालसा वाले लोग तो जरूर ही पहूंच जाते हैं। तो इस तरह के तरीकों से बड़े फंड का जुगाड़ भले ही बनता हो, कुछ पुरस्कारों का जुगाड़ बन जाता हो, मीडिया के ग्लैमर का भी अानंद लिया जा सकता हो, किंतु जमीनी यथार्थ में तो अाम अादमी अौर सुचना का अधिकार दोनों ही अौर कमजोर होते जाते हैं।
अब कुछ जीवंत उदाहरणों को भी समझने का प्रयास किया जाये। उत्तर प्रदेश के एक बड़े सामाजिक सेलेब्रिटी जिनको कि RTI के कामों का बड़ा पुरोधा माना जाता है अौर इनको अमेरिका के भारतीय मूल के लोगों से करोड़ों रुपये का फंड RTI के कामों के लिये दिया जा रहा है। यह महोदय RTI के लिये इतने प्रतिष्ठित हैं कि जिसके उपर हाथ रख देते हैं उसको RTI का विशेषज्ञ मान लिया जाता है, जिसको कह देते हैं उसको खराब अौर भ्रष्ट मान लिया जाता है। इन्ही सेलेब्रिटी महोदय के कुछ मुख्य कार्यकर्ता लोगों ने ग्राम स्तर के तथा ब्लाक स्तर के जन प्रतिनिधियों से इस बात पर पैसे लेने शुरु किये कि ये लोग उन लोगों पर RTI नही लगायेगें। इन सामाजिक सेलीब्रिटी महोदय ने खुद की सूडो इमानदारी व सूडो पारदर्शिता दिखाते हुये खुद अपने ही कार्यकर्ताअों के उपर खुद ही लेख लिख कर पाकसाफ साबित करने का प्रयास किया, लेख भी कुछ इस प्रकार की शैली से लिखे गये कि लेख पढ़ने से ऐसा लगता है कि जैसे इन सेलेब्रिटी महोदय का कार्यकर्ताअों से कोई संबंध नही है बल्कि इनकी खोजी पत्रकारिता की देन है। इन्ही सेलिब्रिटी महोदय ने अपने एक चहेते कार्यकर्ता को एक बड़े जिले में RTI के काम करने वाले के रूप में कैसे स्थापित किया इसको भी देखा जाये, इन महोदय नें उस जिले में खूब प्रेस कान्फरेन्सेस की ंअौर अपने चहेते को मीडिया में स्थापित किया, एक छोटे से धरने को कोरिया देश के एक अखबार में छपवाया, ताकि क्षेत्रीय प्रशासन अौर अाम अादमी को लगे कि इनके चहेते जी बहुत बड़े अादमी हैं इसलिये यदि वह RTI लगायें तो डरा जाये अौर RTI का जवाब दिया जाये। कुछ लोगों को RTI के कामों के लिये वेतनभोगी कर्मचारी भी बनाया गया, जिनका कि प्रयोग धरना प्रदर्शन अौर प्रेस कान्फेरेन्सेस अादि करने में किया जाता है। हो सकता हो इस प्रकार की चोचले बाजियों से फंड का जुगाड़ या खुद को महापुरुष सिद्ध करके पुरस्कारों की लॅाबिंग का जुगाड़ बनता हो, किंतु अाम अादमी अौर अाम समाज को मजबूत नही हो पाता। क्योकि अाम अादमी के पास कोई तंख्वाह नही होती, कोई सेलेब्रिटी पीछे नहीं होता, कोई रिश्तेदार विदेश नहीं में रहता जिससे कि छोटी बात को बहुत बड़ी बात बना कर किसी विदेशी अखबार में छपवाया जा सके। यही कारण है कि इतने विश्वास, इतने संसाधन, धन तथा मानवीय संसाधनों का प्रयोग करने के बावजूद ये लोग RTI को अाम अादमी के लिये मजबूत क्यों नही कर पाये। इन्हीं महोदय के एक अौर चहेते कार्यकर्ता हैं जिनका कि लगभग दो साल पहले मुझसे यह कहना था वह भी बहुत अाक्रामक बहस के रूप में कि उन्होनें RTI लगाकर वाराणसी को अादर्श जिला बना दिया है। लगभग दो साल पहले उनका दावा था कि अब वाराणसी में स्वराज अा चुका है अौर यह उनकी मेहनत के कारण हुअा है। बहुत ही अासानी से समझा जा सकता है कि यह बात किसी अाम अादमी के मुंह से नही निकल रही थी बल्कि एक चतुर व मंझे हुये NGO अौर फंड के तंत्र के खिलाड़ी के मुंह से निकल रही थी, इन सज्जन के लिये जमीनी यथार्थ महत्वपूर्ण नहीं था बल्कि इनके द्वारा खर्च किये जाने वाले लाखों करोड़ों रुपये सालाना के फंड का जस्टीफिकेशन अधिक महत्वपूर्ण था। सुनते हैं कि इनको RTI के लिये मिलने वाले पुरस्कारों के लिये इनके फंडरों द्वारा इनका नाम अागे बड़ाया जा रहा है। ये तो कुछ उदाहरण हैं, ऐसे उदाहरणों से देश भरा पड़ा हुअा है।
इन सब बातों से RTI कमजोर हुअा है अौर वे लोग बहुत हतोत्साहित हुये हैं जिन्होनें RTI को पैसे कमाने या मीडिया के ग्लैमर का मजा लेने या फंड का जुगाड़ नहीं माना अौर एक अाम अादमी की हैसियत से RTI को मजबूत करने का प्रयास करते अा रहे हैं।
NGO जगत के बड़े प्रोफेशनल लोगों तथा इनके वेतनभोगी लोगों के कारण RTI कानून कैसे कमजोर होता जा रहा है, अाईये इस पर चर्चा किया जाये। इन लोगों के कारण सूचना का अधिकार एक बड़ा हव्वा बन गया है, अाम अादमी सोचने लगा है कि सूचना का अधिकार लगाने के लिये धरना करना, प्रदर्शन करना, प्रेस कान्फेरेन्स करना या किसी बड़े अादमी का बैकअप होना बहुत जरूरी है। जिन लोगों को तन्ख्वाहें मिलती हैं तथा मीडिया का ग्लैमर का भोग लगाने को मिलता हो, वे लोग यह क्यों चाहेगे कि सूचना का अधिकार कानून अाम अादमी के लिये सहज उपलब्ध हो जाये। चूंकि पिछले चार सालों में अधिकतर अावेदन इन जैसे वेतनभोगी व सामाजिक प्रोफेशनल लोगों के द्वारा ही दिये गये हैं इसलिये यह मानकर कि सभी लोग RTI के विशेषज्ञ हो चुके हैं, फार्म भरने जैसे नियम बनाकर या अावेदन फीस बढ़ाने का काम सरकारी विभागों द्रारा किया जा रहा है। भारत की जनसंख्या का बहुत बड़ा भाग ऐसा है जो कि लिखना पढ़ना नही जानता है तो फार्म भरने की बात सुनकर ही कांपने लगते हैं, फार्म भरने की प्रक्रिया होने से अधिकारियों को बैठे बिठाये अावेदन को निरस्त करने का अधिकार मिल जाता है क्योकि फार्म सही तरीके से नही भरा गया। कुछ राज्य सरकारें सूचना के अधिकार को कमजोर करना चाहती हैं तो फिर हो हल्ला मचाया जाता है, किंतु क्या कभी इन अति प्रतिष्ठित सामाजिक सेलेब्रिटियों द्वारा खुद का अोढ़ी हुयी सूडो ईमानदारी से ऊपर ऊठ कर मूल्यांकन किया जाता है कि इस कानून को कमजोर करने में उनका अपना खुद का कितना हाथ है?
लेख के अंत में एक गंभीर घटना का उल्लेख करना चाहता हूं। तकरीबन 3 साल पहले मुझे IIT Bombay में कुछ अधिक पढ़े लिखे लोगों ने इस बात पर RTI पर शैलेष गांधी जी के सेमिनार में घुसने से रोक दिया था क्योकि मेरा यह कहना था कि सूचना का अधिकार एक सहयोगी अौर अपूर्ण कानून है, बाद में इस शर्त में घुसने दिया था कि यदि शैलेष जी कहेंगे तो भी मैं कुछ नहीं बोलुंगा बाकी लोगों को सक्रिय भागीदारी करनी थी किंतु मुझे केवल सुनना था। शैलेष जी ने अपनी बात की शुरुअात ही इस बात से की थी कि भारत के लोगों को अाजादी के समय स्वराज नहीं मिला था किंतु इस कानून के अाने से हमें स्वराज मिल गया है अौर हम सभी को स्वराज का अानंद लेना चाहिये। मैं पूरे सेमिनार में कुछ नहीं बोला था किंतु मैं उनकी स्वराज वाली बात से सहमत नहीं था। अाज वही शैलेष जी जो कि RTI कानून को स्वराज का अाना कहते थे, अाज खुद सूचना अायोग के सर्वोच्च पदों में से अासीन है, तो अाज मैं उनसे पूछना चाहुंगा कि क्या सच में ही RTI कानून बनने से अाम समाज स्वराज का भोग कर रहा है? यदि शैलेष जी कहेंगें कि अाम अादमी स्वराज का अानंद ले रहा है, तो मैं यह समझूंगा कि उनको भारतीय अाम अादमी कि जमीनी हकीकत की ठोस जानकारी नहीं है, हो सकता है कि शैलेष जी को स्वराज मिल चुका हो किंतु असली भारत तो अभी भी असली अाजादी की बाट जोह रहा है जो कि दिन प्रतिदिन अौर भी दूर होती जा रही है।
भारत की जनसंख्या के बहुत बड़े भाग ने Internet के प्रयोग की बात तो दूर कभी Computer नहीं देखा है। जो बहुत छोटा भाग Internet का प्रयोग भी करता है उसका भी बहुत ही छोटा भाग ऐसा है जो कि Internet में क्रान्तिकारिता की बात करता है, इनमें से भी अधिकतर लोग वे हैं जो कि ऊंचे वेतन देने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों में नौकरी करते हैं। तो इस अानलाईन क्रान्तिकारिता में कितनी ठोस व यथार्थ दम हो सकता है असली भारत के सामाजिक परिवर्तन के लिये इसका अांकलन सहजता से किया जा सकता है। इस बिंदु को समाप्त करने के पहले यह भी बताना चाहता हूं कि मुझे कोई ताज्जुब नही हुअा था कि सूचना के अधिकार के सेमिनार में एक अादमी को बोलने से मना किया गया था, किंतु यह अनुमान जरुर ही हो गया था कि भारतीय समाज का ऊंची डिग्री धारी अौर MNC में नौकरी करने वाला युवा वर्ग यही सोचता है कि समाज को समझना व सामाजिक परिवर्तन से बहुत अधिक कठिन है किताबी सवालों को हल करके डिग्री पाना अौर अधिक पैसे की नौकरी करना। यही सोच इस वर्ग के अंदर अहंकार अौर भ्रम पैदा करती है कि वे ही सबसे बेहतर समझते हैं अौर उनके पैसों के दम पर ही सामाजिक बदलाव संभव है। इस वर्ग के कुछ लोग घर बैठे क्रान्तिकारी बनने के लिये भले ही Internet में Online Groups में कुछ लिखा पढ़ी करना शुरु कर दिये कि यह कानून बहुत अच्छा है वास्तविक अाजादी दिलाने वाला है वगैरह वगैरह, किंतु इनमें से कितने लोगों ने खुद कितनी गंभीरता से RTI का प्रयोग किया है जबकि इस कानून का प्रयोग घर बैठे कोई भी कर सकता है, यह बहुत ही अावश्यक प्रश्न है। बहुत लोग कहीं से Forward हुयी मेल पाकर उसी को फिर अागे Forward करने को ही बहुत बड़ी क्रान्तिकारिता के रूप में लेते हैं या अाजकल अानलाईन पिटीशन्स रूपी क्रान्तिकारी होने अौर सक्रिय जागरूक होने का नया फैशन चला है तो उसमें अपना नाम लिख कर लोग खुद को क्रान्तिकारी या सक्रिय होने का शौक पूरा कर लेते हैं अौर अंदर के अहंकार को पोषित कर लेते हैं। अब ई-मेल्स कब तक अौर कितनी बार फारवर्ड की जा सकती हैं, कितनी वेबसाइट्स में अानलाईन पिटीशन बनाये जा सकते हैं? तो इस प्रकार की क्रान्तिकारिता जो कि कुछ समय तक RTI के कानून के लिये हुयी अौर समय के साथ धीरे-धीरे खतम भी हो गयी। अब कुछ नये मुद्दे अा गये हैं अानलाईन क्रान्तिकारिता के बाजार में, कुछ समय बाद कुछ अौर नये मुद्दे अायेंगें, लोग क्रान्तिकारी बनते रहेंगे अौर भारत की अधिकतर अाबादी शोषण अौर गुलामी भोगती रहेगी। यही नियति बन चुकी है अब भारत के अाम अादमी अौर अाम समाज की। जय़ हिंद।
लेखक-
विवेक उमराव ग्लेंडेनिंग
सितम्बर 2009
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